ऐसा अपनापन भी क्या जो अज़नबी

ऐसा अपनापन भी क्या जो अज़नबी महसूस हो
साथ रह कर भी गर मुझे तेरी कमी महसूस हो,

आग ख़ुद बस्ती में लगा कर बोलते हो यूँ जलो
कि दूर से देखने वालों को तो रौशनी महसूस हो,

भीड़ के लोगो सुनो, ये हुक्म है दरबार ए आम का
गर भूख से भी गिरो तो ऐसे गिरो बंदगी महसूस हो,

नाम था उसका बगावत इसी लिए उसे क़ातिलो ने
क़त्ल भी ऐसे किया कि क़त्ल ख़ुदकुशी महसूस हो,

शाख ए शज़र पे बैठे परिंदे कह रहे थे कानो में
ये कैसी रिहाई है जिसमे हर घड़ी बेबसी महसूस हो ?

फूल न दे तू मुझको, लेकिन बोल तो फूलो से बोल
जिसको सुन कर तितलियों सी ताज़गी महसूस हो,

शर्त मुर्दों से लगा कर बे फैज़ ही काट दी आधी सदी
अब तो करवट लो तुम जिससे ज़िन्दगी महसूस हो,

हो अगर जज़्ब ए अमल की बेकली इन्सान में
तो सर पे तपती दोपहरी भी जैसे चाँदनी महसूस हो,

सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनियाँ का निज़ाम
गम में कोई रोये तो आँख में सबकी नमी महसूस हो,

दे दिया था तुमको मैंने अपना पता बस इसी लिए
याद कर लेना कभी गर कही मेरी कमी महसूस हो..!!

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