सफ़र ए वफ़ा की राह में मंज़िल जफा की थी
कागज़ का घर बना के भी ख्वाहिश हवा की थी,
थी जुगनुओं के शहर में तारों से दुश्मनी
मा’शूक़ चाँद था और तमन्ना सुब्ह की थी,
तुम ने तो इबादत का तमाशा बना दिया
चाहत नमाज़ की थी पर आदत क़ज़ा की थी,
मैनें तो ज़िन्दगी को तेरे नाम लिखा था
शायद मगर कुछ और ही मर्ज़ी ख़ुदा की थी,
दर्द ही देना था तो पहले बता देते
हम को भी अज़ल से ही तमन्ना सज़ा की थी..!!