क्या बताते हैं इशारात तुम्हें क्या मा’लूम
कितने मश्कूक हैं हालात तुम्हें क्या मा’लूम ?
ये उलझते हुए जज़्बात तुम्हें क्या मा’लूम
हैं यही बाइ’स ए आफ़ात तुम्हें क्या मा’लूम ?
एक आँगन को फ़क़त अपने सजाने के लिए
कितनी झीलें हैं मुहिम्मात तुम्हें क्या मा’लूम ?
राज़ हस्ती का है क्या मक़्सद ए हस्ती क्या है
हल तलब हैं ये सवालात तुम्हें क्या मा’लूम ?
एक खनकती हुई मिट्टी हो जिला बख़्शी है
कितनी प्यारी है ये सौग़ात तुम्हें क्या मा’लूम ?
दिन गुज़रता है किसी और बहाने से मगर
कैसे कटती है मेरी रात तुम्हें क्या मा’लूम ?
बेच कर सारा असासा करो शादी ‘मोहसिन’
यूँ ही आती नहीं बारात तुम्हें क्या मा’लूम ?
~दाऊद मोहसिन