घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर…

घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बग़ैर,

कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त ए सुख़न
जानू किसी के दिल की मैं क्यूँकर कहे बग़ैर,

काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में
लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर,

जी में ही कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाए या रहे न रहें पर कहे बग़ैर,

छोड़ूँगा मैं न उस बुत ए काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर,

मक़्सद है नाज़ ओ ग़म्ज़ा वले गुफ़्तुगू में काम
चलता नहीं है दशना ओ ख़ंजर कहे बग़ैर,

हर चंद हो मुशाहिदा ए हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा ओ साग़र कहे बग़ैर,

बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर,

‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर..!!

~मिर्ज़ा ग़ालिब

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