जला के मिशअल ए जाँ हम जुनूँ सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले,
दयार ए शाम नहीं मंज़िल ए सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले,
हमारे लब न सही वो दहान ए ज़ख़्म सही
वहीं पहुँचती है यारो कहीं से बात चले,
सुतून ए दार पे रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले,
हुआ असीर कोई हमनवा तो दूर तलक
ब पास ए तर्ज़ ए नवा हम भी साथ साथ चले,
बचा के लाए हम ऐ यार फिर भी नक़्द ए वफ़ा
अगरचे लुटते रहे रहज़नों के हाथ चले,
फिर आई फ़स्ल कि मानिंद बर्ग ए आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासलात चले,
क़तार ए शीशा है या कारवान ए हम-सफ़राँ
ख़िराम ए जाम है या जैसे काएनात चले,
भुला ही बैठे जब अहल ए हरम तो ऐ मजरूह
बग़ल में हम भी लिए एक सनम का हाथ चले..!!
~मजरूह सुल्तानपुरी