हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़्यादा
चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़्यादा
चाक ए जिगर मोहताज ए रफ़ू है आज तो दामन सर्फ़ ए लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़ ए बहाराँ तुम से ज़्यादा,
अहद ए वफ़ा यारों से निभाएँ नाज़ ए हरीफ़ाँ हँस के उठाएँ
जब हमें अरमाँ तुम से सिवा था अब हैं पशेमाँ तुम से ज़्यादा,
हम भी हमेशा क़त्ल हुए और तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझना हम को हुआ है जान का नुक़साँ तुम से ज़्यादा,
जाओ तुम अपने बाम की ख़ातिर सारी लवें शम्ओं की कतर लो
ज़ख़्म के मेहर ओ माह सलामत जश्न ए चराग़ाँ तुम से ज़्यादा,
देख के उलझन ज़ुल्फ़ ए दोता की कैसे उलझ पड़ते हैं हवा से
हम से सीखो हम को है यारो फ़िक्र ए निगाराँ तुम से ज़्यादा,
ज़ंजीर ओ दीवार ही देखी तुम ने तो मजरूह मगर हम
कूचा कूचा देख रहे हैं आलम ए ज़िंदाँ तुम से ज़्यादा..!!
~मजरूह सुल्तानपुरी