ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल ए बेताब गुफ़्तुगू करते,
पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान ए ग़ैर से क्या शरह ए आरज़ू करते,
मेरी तरह से मह ओ मेहर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते,
हमेशा रंग ए ज़माना बदलता रहता है
सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते,
लुटाते दौलत ए दुनिया को मय कदे में हम
तिलाई साग़र ए मय नुक़रई सुबू करते,
हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ूगर रहे रफ़ू करते,
जो देखते तेरी ज़ंजीर ए ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते,
बयाज़ ए गर्दन ए जानाँ को सुब्ह कहते जो हम
सितारा ए सहरी तकमा ए गुलू करते,
ये काबे से नहीं बेवजह निस्बत ए रुख़ ए यार
ये बे सबब नहीं मुर्दे को क़िबला रू करते,
सिखाते नाला ए शबगीर को दर अंदाज़ी
ग़म ए फ़िराक़ का उस चर्ख़ को अदू करते,
वो जान ए जाँ नहीं आता तो मौत ही आती
दिल ओ जिगर को कहाँ तक भला लहू करते,
न पूछ आलम ए बरगश्ता तालई आतिश
बरसती आग जो बाराँ की आरज़ू करते..!!
~हैदर अली आतिश