मुहब्बत कहाँ अब घरों में मिले…

मुहब्बत कहाँ अब घरों में मिले
यहाँ फूल भी पत्थरो में मिले,

जो फिरते रहे दनदनाते हुए
वही लोग अब मकबरों में मिले,

मुहब्बत, मुरौत, ख़ुलूस ओ वफ़ा
कहाँ अब हमें रहबरों में मिले ?

पुजारी है सब माल ओ ज़र के यहाँ
मुरौत कहाँ अब दिलो में मिले,

हमें शक़ था गैरो पे पर क्या हुआ
जो अपने थे वही क़ातिलो में मिले,

जो मंज़िल हो नज़दीक बेकार है
सफ़र का मज़ा फ़ासलो में मिले,

वो ख़ामोश थे सर झुकाए हुए
जो पत्थर के बुत मंदिरों में मिले,

बहुत लिखने वाले है हमसे बेहतर
मगर मेरे जैसे कम शायरों में मिले..!!

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