एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने…

एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
एक सौत-ए-गुंग जैसे गुम्बदों के सामने,

मिटते जाते नक़्श दूद-ए-दम की आमद रफ़्त से
खुलते जाते बे-सदा लब आइनों के सामने,

है हवा-ए-सैर-ए-आब और अजनबी सी सर-ज़मीं
उड़ रही है ख़ाक-ए-कोहना साहिलों के सामने,

आग जलती है घरों में या कोई तस्वीर है
यादगार-ए-जुर्म-ए-आदम ख़ाकियों के सामने,

दुश्मनी रस्म-ए-जहाँ है दोस्ती हर्फ़-ए-ग़लत
आदमी तन्हा खड़ा है ज़ालिमों के सामने,

चार चुप चीज़ें हैं बहर-ओ-बर फ़लक और कोहसार
दिल दहल जाता है इन ख़ाली जगहों के सामने,

बातिन-ए-ज़रदार पुर-असरार है जैसे ‘मुनीर’
कान-ए-ज़र की बंद हैबत मशअ’लों के सामने..!!

~मुनीर नियाज़ी

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