समझ रहे थे कि अपनी सुधर गई दुनियाँ
हमें तो मुफ़्त में बदनाम कर गई दुनियाँ,
मुतालबों से नहीं मिल सकी नजात कभी
हवस के ज़िंदा तक़ाज़ों से भर गई दुनियाँ,
हर एक आँख में चढ़ता हुआ अना का नशा
हर एक हर्फ़ ए वफ़ा से मुकर गई दुनियाँ,
असीर कर के तबाही के मुझ को दलदल में
बताए कौन ये मुझ को किधर गई दुनियाँ,
वो क्या हुए मेरे पुर कैफ़ पुर सुकूँ लम्हे
मुझे तलाश है जिस की किधर गई दुनियाँ,
कटी हुई है हर एक शाख़ पेड़ से ‘मोहसिन’
लो बर्ग ए ख़ुश्क सी अब के बिखर गई दुनियाँ..!!
~दाऊद मोहसिन