ऐसा अपनापन भी क्या जो अज़नबी महसूस हो…

ऐसा अपनापन भी क्या जो अज़नबी महसूस हो
साथ रह कर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो,

आग बस्ती में लगा कर वो बोलते है, यूँ जलो
दूर से गर देखे कोई तो रुँशनी महसूस हो,

भीड़ के लोगो सुनो ये हुक्म है दरबार का
भूख से तुम ऐसे गिरो कि बँदगी महसूस हो,

नाम था उसका बग़ावत क़ातिलो ने इसलिए
क़त्ल भी ऐसा किया कि ख़ुदकुशी महसूस हो,

शाख़ पर बैठे परिंदे कह रहे थे कान में
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो,

फूल मत दे मुझको लेकिन बोल तो फूलो से बोल
जिनको सुन कर तितलियों सी ताज़गी महसूस हो,

शर्त मुर्दों से लगा कर काट दी आधी सदी
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िन्दगी महसूस हो,

हो अगर जज़्ब ए अमल की बेकली इन्सान में
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो,

सिर्फ इतने पर बदल सकता है दुनियाँ का निज़ाम
कोई रोये पर आँख में सबकी नमी महसूस हो,

दे रहा हूँ आपको अपना पता मैं इसलिए
याद कर लेना कभी जो मेरी कमी महसूस हो,

~माणिक वर्मा

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