नाम ए मुहब्बत का यही इस्तिआरा है

नाम ए मुहब्बत का यही इस्तिआरा है
जो नहीं है हासिल वही होता हमारा है,

माज़ी में छोड़ आये जिस मोहल्ले को
दौर ए हाज़िर में वही होता गुज़ारा है,

लब ए महबूब बेशक़ रहे ख़ामोश मगर
आँखें समझतीं हैं कि आँखों ने पुकारा है,

नाम देती है दुनियाँ जिसे शादी का यहाँ
उसने भी बहुतो को मौत के घाट उतारा है..!!

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