ख़ुश्बू मेंरे बदन में रची है ख़लाओं की
मैं सैर कर रहा हूँ अभी तक फ़ज़ाओं की,
मत रोक अपने लब पे नज़र की हक़ीक़तें
तेरी हर एक सदा है अमानत हवाओं की,
है कौन जो करेगा सदाक़त से मोल तोल
क़ीमत तलब करूँ भी तो किस से वफ़ाओं की ?
उठी हैं इस तरह से हवादिस की आँधियाँ
मिट्टी में ताब मिल गई रंगीं क़बाओं की,
शहरों में आ के नूर के साँचे में ढल गई
मिट्टी वही कि राख थी गलियों में गाँव की,
बेताब आज ढूँढने निकलें किधर अमाँ ?
अब शहर शहर बन चुका बस्ती बलाओं की..!!
~सलीम बेताब