ठोकरें खा के सँभलना नहीं आता है मुझे…

ठोकरें खा के सँभलना नहीं आता है मुझे
चल मेरे साथ कि चलना नहीं आता है मुझे,

अपनी आँखों से बहा दे कोई मेरे आँसू
अपनी आँखों से निकलना नहीं आता है मुझे,

अब तेरी गर्मी ए आग़ोश ही तदबीर करे
मोम हो कर भी पिघलना नहीं आता है मुझे,

शाम कर देता है अक्सर कोई ज़ुल्फ़ों वाला
वर्ना वो दिन हूँ कि ढलना नहीं आता है मुझे,

कितने दिल तोड़ चुका हूँ इसी बेहुनरी से
जाल में फँस के निकलना नहीं आता है मुझे,

बीच दरिया के मैं दरिया तो बदल सकता हूँ
अपनी कश्ती को बदलना नहीं आता है मुझे,

अपने मा’नी को बदलना तो मुझे आता है
इनके लफ़्ज़ों को बदलना नहीं आता है मुझे,

‘फ़रहत-एहसास’ तरक़्क़ी नहीं करनी मुझको
इतनी रफ़्तार से चलना नहीं आता है मुझे..!!

~फ़रहत एहसास

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