वतन नसीब कहाँ अपनी क़िस्मतें होंगी
जहाँ भी जाएँगे हम साथ हिजरतें होंगी,
कभी तो साहिब ए दीवार ओ दर बनेंगे हम
कभी तो सर पे हमारे नई छतें होंगी,
ये अश्क तेरे मेरे राएगाँ न जाएँगे
उन्हीं चराग़ों से रौशन मोहब्बतें होंगी,
तेरी अदा में है इंकार भी इजाज़त भी
जो हम मिलेंगे तो दूरी न क़ुर्बतें होंगी,
अमल दुरुस्त करें अपने रहनुमाए किराम
कहूँगा साफ़ तो सब को शिकायतें होंगी,
हम उन के सामने सच बोलने के मुजरिम हैं
हमीं पे वक़्त की सारी इनायतें होंगी,
हमें तो अपने मसाइल का हल भी है दरकार
तुम्हारे पास तो ख़ाली बशारतें होंगी,
वहाँ पे क़ाफ़िले भटकेंगे तय है ये ‘मंज़र’
जहाँ उसूल से ख़ाली क़यादतें होंगी,
अभी तो क़ैद हैं जज़्बों की आँधियाँ दिल में
हमारा सब्र जो तोड़ा क़यामतें होंगी..!!
~मंज़र भोपाली