एक तारीख़ मुक़र्रर पे तो हर माह मिले
एक तारीख़ मुक़र्रर पे तो हर माह मिले जैसे दफ़्तर में किसी शख़्स को तनख़्वाह …
एक तारीख़ मुक़र्रर पे तो हर माह मिले जैसे दफ़्तर में किसी शख़्स को तनख़्वाह …
हर एक हज़ार में बस पाँच सात हैं हम लोग निसाब ए इश्क़ पे वाजिब …
खेल दोनों का चले तीन का दाना न पड़े सीढ़ियाँ आती रहें साँप का ख़ाना …