शहर वीराँ उदास हैं गलियाँ
रहगुज़ारों से उठ रहा है धुआँ,
आतिश ए ग़म में जल रहे हैं दयार
गर्द आलूद है रुख़ ए दौराँ,
बस्तियों पर ग़मों की यूरिश है
क़र्या क़र्या है वक़्फ़ ए आह ओ फ़ुग़ाँ,
सुब्ह बे नूर शाम बे माया
लुट गई दौलत ए निगाह कहाँ ?
फिर रहे हैं तुयूर आवारा
बर्क़ हर शाख़ पर है शो’ला फ़िशाँ,
मेरी तन्हाइयों पे सूरत ए शम्अ’
रो रहा है अलम नसीब समाँ,
मेरे शानों से तेरी ज़ुल्फ़ों तक
फ़ासला उम्र का है मेरी जाँ..!!
~हबीब जालिब
























