लहू ने क्या तेरे ख़ंजर को दिलकशी दी है

लहू ने क्या तेरे ख़ंजर को दिलकशी दी है
कि हम ने ज़ख़्म भी खाए हैं दाद भी दी है,

लिबास छीन लिया है बरहनगी दी है
मगर मज़ाक़ तो देखो कि आँख भी दी है,

हमारी बात पे किस को यक़ीन आएगा
ख़िज़ाँ में हम ने बशारत बहार की दी है,

धरा ही क्या था तेरे शहर ए बेज़मीर के पास
मेरे शुऊर ने ख़ैरात ए आगही दी है,

हयात तुझ को ख़ुदा और सर बुलंद करे
तेरी बक़ा के लिए हम ने ज़िंदगी दी है,

कहाँ थी पहले ये बाज़ार ए संग की रौनक़
सर ए शिकस्ता ने कैसी हमाहमी दी है,

चराग़ हूँ मेरी किरनों का क़र्ज़ है सब पर
बक़द्र ए ज़र्फ़ नज़र सब को रौशनी दी है,

चली न फिर किसी मज़लूम के गले पे छुरी
हमारी मौत ने कितनों को ज़िंदगी दी है,

तेरे निसाब में दाख़िल थी आस्ताँ बोसी
मेरे ज़मीर ने तालीम ए सरकशी दी है,

कटेगी उम्र सफ़र जादा ए आफ़रीनी में
तेरी तलाश ने तौफ़ीक़ ए गुमरही दी है,

हज़ार दीदा तसव्वुर हज़ार रंग ए नज़र
हवस ने हुस्न को बिसयार चेहरगी दी है..!!

~एज़ाज़ अफ़ज़ल

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