इस शहर में कहीं पे हमारा मकाँ भी हो
बाज़ार है तो हम पे कभी मेहरबाँ भी हो,
जागें तो आस पास किनारा दिखाई दे
दरिया हो पुरसुकून खुला बादबाँ भी हो,
एक दोस्त ऐसा हो कि मेंरी बात बात को
सच मानता हो और ज़रा बदगुमाँ भी हो,
रस्ते में एक पेड़ हो तन्हा खड़ा हुआ
और उसकी एक शाख़ पे एक आशियाँ भी हो,
उससे मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी
दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो,
हम उस जगह चले हैं जहाँ ये ज़मीं नहीं
अच्छा हो गर वहाँ पे नया आसमाँ भी हो..!!
~मोहम्मद अल्वी