अमूमन मेरी हसरत को चाहत का…

अमूमन मेरी हसरत को चाहत का नाम दे गये लोग
जीश्त को इन्तेहा ए आशिकी का पैग़ाम दे गये लोग,

क्या खूब चली थी वो दौर ए दीदार ओ इश्क की मगर
रिश्तों के शक्ल में जिम्मेदारियां तमाम दे गये लोग,

जुबान से तो यूँ कभी कोई झूठा वादा न किया मगर –
बस एक को ख़ास बनाने में मुझे बदनाम दे गये लोग,

अब जो खलाओं पे चलने की आदत न रही मुझको
नासूर ए ज़ख्म मेरे तलवों को सर ए आम दे गये लोग,

वो सुबह मेरी होती थी हर रोज़ गुलफ़ामों के भीड़ में
तन्हाई के इस महफ़िल में ये क्या शाम दे गये लोग..!!

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