ऐ जुनूँ कुछ तो खुले आख़िर मैं किस मंज़िल में हूँ

ऐ जुनूँ कुछ तो खुले आख़िर मैं किस मंज़िल में हूँ
हूँ जवार ए यार मैं या कूचा ए क़ातिल में हूँ ?

पा ब जौलाँ अपने शानों पर लिए अपनी सलीब
मैं सफ़ीर ए हक़ हूँ लेकिन नर्ग़ा ए बातिल में हूँ,

जश्न ए फ़र्दा के तसव्वुर से लहू गर्दिश में है
हाल में हूँ और ज़िंदा अपने मुस्तक़बिल में हूँ,

दम ब ख़ुद हूँ अब सर ए मक़्तल ये मंज़र देख कर
मैं कि ख़ुद मक़्तूल हूँ लेकिन सफ़ ए क़ातिल में हूँ,

एक ज़माना हो गया बिछड़े हुए जिस से सुरूर
आज उसी के सामने हूँ और भरी महफ़िल में हूँ..!!

~सुरूर बाराबंकवी

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