कभी अपने इश्क़ पे तब्सिरे कभी तज़्किरे रुख़ ए यार के
यूँही बीत जाएँगे ये भी दिन जो ख़िज़ाँ के हैं न बहार के,
ये तिलिस्म ए हुस्न ए ख़याल है कि फ़रेब तेरे दयार के
सर ए बाम जैसे अभी अभी कोई छुप गया है पुकार के,
सियो चाक ए दामन ओ आस्तीं कि वो सरगिराँ न हो फिर कहीं
यही रुत है इशरत ए दीद की यही दिन हैं आमद ए यार के,
अभी और मातम ए रंग ओ बू कि चमन को है तलब ए नुमू
तेरे अश्क हों कि मेरा लहू ये अमीं हैं फ़स्ल ए बहार के,
ग़म ए रोज़ ओ शब की अमीन है ये हयात फिर भी हसीन है
कहीं धूप आरज़ ए दोस्त की कहीं साए गेसू ए यार के..!!
~सुरूर बाराबंकवी