और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात
ढलते ढलते आप अपनी मौत मर जाएगी रात,
ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात
अब अगर ठहरी रग ओ पै में उतर जाएगी रात,
जो भी हैं पर्वर्दा ए शब जो भी हैं ज़ुल्मत परस्त
वो तो जाएँगे उसी जानिब जिधर जाएगी रात,
अहल ए तूफ़ाँ बेहिसी का गर यही आलम रहा
मौज ए ख़ूँ बन कर हर एक सर से गुज़र जाएगी रात,
है उफ़ुक़ से एक संग ए आफ़्ताब आने की देर
टूट कर मानिंद ए आईना बिखर जाएगी रात,
हम तो जाने कब से हैं आवारा ए ज़ुल्मत मगर
तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात,
रात का अंजाम भी मालूम है मुझ को सुरूर
लाख अपनी हद से गुज़रे ता सहर जाएगी रात..!!
~सुरूर बाराबंकवी