चलो वो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

चलो वो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
पर क्या करें हमें एक दूसरे की आदत है,

तू अपनी शीशागरी का ना कर हुनर ज़ाया
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है,

मैं क्या कहूँ कि मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ कि तुझे देखने की आदत है,

तेरे नसीब मैं ऐ दिल सदा की महरूमी
ना वो सखी ना तुझे माँगने की आदत है,

विसाल में भी वही फिराक़ का आलम
कि उसको नींद और मुझे रत जगे की आदत है,

ये मुश्किलें हो तो कैसे रास्ते तय हो ?
मैं ना सुबूर और उसे सोचने की आदत है,

ये ख़ुद अज़ियती कब तक फराज़ ?
तू भी उसे न याद कर जिसे भूलने की आदत है..!!

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