सहर जब मुस्कुराई तब कहीं तारों को नींद आई
बहुत मुश्किल से कल शब दर्द के मारों को नींद आई,
सुना है शाम से ही ताक में बैठे हैं सब गुलचीं
क़यामत गुल पे आएगी अगर ख़ारों को नींद आई,
हमेशा ज़ेहन ओ दिल में कुछ न कुछ चलता ही रहता है
हुए जो फ़िक्र से ख़ाली तो फ़नकारों को नींद आई,
अज़ल से पूरी शिद्दत से ख़लाओं में मुअल्लक़ हैं
कभी तुम ने सुना है ये कि सय्यारों को नींद आई,
मुसलसल नाज़ बरदारी से आजिज़ आ चुका था मैं
चलो अच्छा हुआ कमबख़्त आज़ारों को नींद आई,
ये तख़लीक़ी अनासिर वर्ना मसरूफ़ ए अमल ही थे
गई जो रूह उस आलम में तो चारों को नींद आई,
वगर्ना शाद बेख़्वाबी में गुज़री ज़िंदगी उन की
रुका जब कारवान ए ज़ीस्त बंजारों को नींद आई..!!
~शमशाद शाद