ये मिस्रा नहीं है वज़ीफ़ा मिरा है…

ये मिस्रा नहीं है वज़ीफ़ा मिरा है
ख़ुदा है मोहब्बत मोहब्बत ख़ुदा है,

कहूँ किस तरह मैं कि वो बेवफ़ा है
मुझे उस की मजबूरियों का पता है,

हवा को बहुत सर-कशी का नशा है
मगर ये न भूले दिया भी दिया है,

मैं उस से जुदा हूँ वो मुझ से जुदा है
मोहब्बत के मारों पे फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा है,

नज़र में है जलते मकानों का मंज़र
चमकते हैं जुगनू तो दिल काँपता है,

उन्हें भूलना या उन्हें याद करना
वो बिछड़े हैं जब से यही मश्ग़ला है,

गुज़रता है हर शख़्स चेहरा छुपाए
कोई राह में आईना रख गया है,

बड़ी जान लेवा हैं माज़ी की यादें
भुलाने को जी भी नहीं चाहता है

कहाँ तू ‘ख़ुमार’ और कहाँ कुफ़्र तौबा
तुझे पारसाओं ने बहका दिया है..!!

~ख़ुमार बाराबंकवी


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