वो सिवा याद आए भुलाने के बा’द
ज़िंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बा’द,
दिल सुलगता रहा आशियाने के बा’द
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बा’द,
रौशनी के लिए दिल जलाना पड़ा
ऐसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बा’द,
जब न कुछ बन पड़ा अर्ज़-ए-ग़म का जवाब
वो ख़फ़ा हो गए मुस्कुराने के बा’द,
दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा
दोस्तों का ख़ुलूस आज़माने के बा’द,
रंज हद से गुज़र के ख़ुशी बन गया
हो गए पार हम डूब जाने के बा’द,
बख़्श दे या रब अहल-ए-हवस को बहिश्त
मुझ को क्या चाहिए तुझ को पाने के बा’द,
कैसे कैसे गिले याद आए ‘ख़ुमार’
उन के आने से क़ब्ल उन के जाने के बा’द..!!