ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम,
मुद्दत हुई है कू ए बुताँ की तरफ़ गए
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम ?
शायद ब क़ैद ए ज़ीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्तान ए शौक़ सुनो और सुनाएँ हम,
बे नूर हो चुकी है बहुत शहर की फ़ज़ा
तारीक रास्तों में कहीं खो न जाएँ हम,
उस के बग़ैर आज बहुत जी उदास है
जालिब चलो कहीं से उसे ढूँढ लाएँ हम..!!
~हबीब जालिब
















