आज के माहौल में इंसानियत बदनाम है
ये इनाद ए बाहमी का ही फ़क़त अंजाम है,
हक़ शनासी का चलन हम में नहीं बाक़ी रहा
सुब्ह अपनी पुर अलम है पुर ख़तर हर शाम है,
हैफ़ बर्बादी ए गुलशन अपने ही हाथों हुई
मुफ़्त में बाद ए ख़िज़ाँ के सर पे क्यूँ इल्ज़ाम है ?
धुंधली धुंधली सी फ़ज़ा है मेहर और इख़्लास की
अब रिफ़ाक़त आश्ती और दोस्ती गुमनाम है,
तपते सहरा से तो बच कर आ गए थे हम मगर
अब क़दम कैसे बढ़ाएँ पुर ख़तर हर गाम है,
क्या गिरानी और अर्ज़ानी की हम बातें करें
पानी महँगा है यहाँ और ख़ून सस्ते दाम है,
बाप से बच्चे ऐ ‘मोहसिन’ मुन्हरिफ़ होने लगे
तरबियत और इल्म के फ़ुक़्दान का अंजाम है..!!
~दाऊद मोहसिन