अज़ब मअमूल है आवारगी का…

अज़ब मअमूल है आवारगी का
गिरेबाँ झाँकती है हर गली का,

न जाने किस तरह कैसे ख़ुदा ने
भरोसा कर लिया था आदमी का ?

अभी इस वक़्त है जो कुछ है वरना
कोई लम्हा नहीं मौजूदगी का,

मुझे तुमसे बिछड़ने के एवज़ में
वसीला मिल गया है शायरी का,

ज़मीं है रक्स में सूरज की ज़ानिब
छुपा कर ज़िस्म आधा तीरगी का,

मैं एक ही सतह पर ठहरूँगा कैसे ?
उतरता चढ़ता पानी हूँ नदी का,

मैं मिट्टी गूँध कर ये सोचता हूँ
मुझे फन आ गया कूज़ागरी का,

खटक जाऊँगा सोफे को तुम्हारे
मैं बन्दा बैठने वाला हूँ दरी का,

मैं इस मंज़र में पाया ही गया कब ?
जहाँ भी ज़ाविया निकला ख़ुशी का,

समन्दर जिसकी आँखों का हो ख़ाली
वो कैसे ख़्वाब देखे जलपरी का..??

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