रो रहा था मैं भरी बरसात थी
हाल क्या खुलता अँधेरी रात थी,
मेरे नालों से है बरहम बाग़बाँ
ये ख़फ़ा होने की कोई बात थी,
दिन नहीं देखा सिवा ए शाम ए हिज्र
ज़िंदगी भर में यही एक रात थी,
नाला ओ आह ओ फ़ुग़ाँ से बढ़ गई
वर्ना उल्फ़त एक ज़रा सी बात थी,
हश्र तक लाया जहाँ से दर्द ए दिल
किस को देता क्या कोई सौग़ात थी,
बंद कीं आँखें कि देखूँ ख़्वाब ए सुब्ह
खोल कर जब आँख देखा रात थी,
ऐ सबा ग़ुंचों ने हँस कर क्या कहा
उन का क़िस्सा था कि मेरी बात थी,
अल्लाह अल्लाह वहदत ए शाम ए फ़िराक़
एक मेरी एक उस की ज़ात थी,
आप ही गिन दें मसाइब हिज्र के
यूँ तो कहने के लिए एक रात थी,
हिचकियों से राज़ ए उल्फ़त खुल गया
आ गई मुँह पर जो दिल में बात थी,
शम ए मरक़द तुझ से शिकवा है मुझे
मेरे घर में भी अँधेरी रात थी,
कुछ न कुछ साक़िब ने पैदा कर लिया
ये ज़मीं तो दुश्मन ए अबयात थी..!!
~साक़िब लखनवी