मौत भी क्या अज़ीब हस्ती है
जो ज़िंदगी के लिए तरसती है,
दिल तो एक शहर है जुदाई का
आँख तो आँसूओं की बस्ती है,
इश्क़ में भी हो मरतबे का ख़्याल
ये बुलंदी नहीं है पस्ती है,
हम उदासी पे अपनी हैं मगरूर
हम को अपने दुखों की मस्ती है,
याद आया है जाने क्या उसको ?
शाम कुछ सोचती है हँसती है,
हम उसे छुपाएँ या तुम्हें छुपाएँ ?
बुत परस्ती तो बुत परस्ती है,
बादलों पर फ़क़त नहीं मौकफ़
आँख भी टूट कर बरसती है…!!