मैं कैसे जियूँ गर ये दुनिया हर आन नई तस्वीर न हो
ये आते जाते रंग न हों और लफ़्ज़ों की तनवीर न हो,
ऐ राह ए इश्क़ के राही सुन चल ऐसे सफ़र की लज़्ज़त में
तेरी आँखों में नए ख़्वाब तो हों पर ख़्वाबों की ताबीर न हो,
घर आऊँ या बाहर जाऊँ हर एक फ़ज़ा में मेरे लिए
एक झूठी सच्ची चाहत हो रस्मों की कोई ज़ंजीर न हो,
जैसे ये मेरी अपनी सूरत मेरे सामने हो और कहती हो
मेरे शायर तेरे साथ हूँ मैं मायूस न हो दिलगीर न हो,
कोई हो तो मोहब्बत ऐसी हो मुझे धूप और साए में जिस के
किसी जज़्बे का आज़ार न हो किसी ख़्वाहिश की ताज़ीर न हो..!!
~उबैदुल्लाह अलीम