कुछ एक रोज़ में मैं चाहतें बदलता हूँ
अगर न सीट मिले तो बसें बदलता हूँ,
हर एक रोज़ वो पहचान कैसे लेती है ?
हर एक रोज़ तो मैं आहटें बदलता हूँ,
हमेशा तुमको शिकायत रही जमाऊँ न हक़
तो सुन लो आज मैं अपनी हदें बदलता हूँ,
कराहती हैं ये बिस्तर की सिलवटें मेरी
तमाम रात मैं यूँ करवटें बदलता हूँ,
ख़ुदा का शुक्र है आदत नहीं बने हो तुम
कुछ एक रोज़ में मैं आदतें बदलता हूँ..!!
~अक्स समस्तीपुरी