कुछ भी था सच के तरफ़दार हुआ करते थे
तुम कभी साहब ए किरदार हुआ करते थे,
सुनते हैं ऐसा ज़माना भी यहाँ गुज़रा है
हक़ उन्हें मिलता जो हक़दार हुआ करते थे,
तुझको भी ज़ोम सा रहता था मसीहाई का
और हम भी तेरे बीमार हुआ करते थे,
एक नज़र रोज़ कहीं जाल बिछाए रखती
और हम रोज़ गिरफ़्तार हुआ करते थे,
हमको मालूम था आना तो नहीं तुझको मगर
तेरे आने के तो आसार हुआ करते थे,
इश्क़ करते थे फ़क़त पास ए वफ़ा रखने को
लोग सच मुच के वफ़ादार हुआ करते थे,
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
हम तेरे वास्ते तैयार हुआ करते थे,
हम गुल ए ख़्वाब सजाते थे दुकान ए दिल में
और फिर ख़ुद ही ख़रीदार हुआ करते थे,
कूचा ए मीर की जानिब निकल आते थे सभी
वो जो ग़ालिब के तरफ़दार हुआ करते थे,
जिनसे आवारगी ए शब का भरम था वो लोग
इस भरे शहर में दो चार हुआ करते थे,
ये जो ज़िंदाँ में तुम्हें साए नज़र आते हैं
ये कभी रौनक़ ए दरबार हुआ करते थे,
मैं सर ए दश्त ए वफ़ा अब हूँ अकेला वर्ना
मेरे हमराह मेरे यार हुआ करते थे,
वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है सलीम
ये कभी वक़्त की रफ़्तार हुआ करते थे..!!
~सलीम कौसर