हैरतों के सिलसिले सोज़ ए निहाँ तक आ गए
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए,
नामुरादी अपनी क़िस्मत गुमराही अपना नसीब
कारवाँ की ख़ैर हो हम कारवाँ तक आ गए,
उनकी पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी
क़िस्सा ए ग़म कहते कहते हम कहाँ तक आ गए,
ज़ुल्फ़ में ख़ुशबू न थी या रंग आरिज़ में न था
आप किस की आरज़ू में गुल्सिताँ तक आ गए,
रफ़्ता रफ़्ता रंग लाया जज़्बा ए ख़ामोश ए इश्क़
वो तग़ाफ़ुल करते करते इम्तिहाँ तक आ गए,
ख़ुद तुम्हें चाक ए गरेबाँ का शुऊ’र आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए,
आज ‘क़ाबिल’ मयकदे में इंक़लाब आने को है
अहल ए दिल अंदेशा ए सूद ओ ज़ियाँ तक आ गए ..!!
~क़ाबिल अजमेरी