हाल में अपने मगन हो फ़िक्र ए आइंदा न हो

हाल में अपने मगन हो फ़िक्र ए आइंदा न हो
ये उसी इंसान से मुमकिन है जो ज़िंदा न हो,

कम से कम हर्फ़ ए तमन्ना की सज़ा इतनी तो दे
जुरअत ए जुर्म ए सुख़न भी मुझ को आइंदा न हो,

बेगुनाही जुर्म था अपना सो इस कोशिश में हूँ
सुर्ख़रू मैं भी रहूँ क़ातिल भी शर्मिंदा न हो,

ज़ुल्मतों की मद्हख़्वानी और इस अंदाज़ से
ये किसी पर्वर्दा ए शब का नुमाइंदा न हो,

मैं बहर सूरत तेरा कर्ब ए तग़ाफ़ुल सह गया
अब मुझे इस का सिला दे सिर्फ़ शर्मिंदा न हो,

ज़िंदगी तिश्ना भी है बेरंग भी लेकिन सुरूर
जब तलक चेहरा फ़रोग़ ए मय से ताबिंदा न हो..!!

~सुरूर बाराबंकवी

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