रह वफ़ा में कोई साहिब ए जुनूँ न मिला

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गुलों के रुख़ पे वही ताज़गी का आलम है
न जाने उन को ग़म ए रोज़गार क्यूँ न मिला,

कहाँ से लाए वो एक बुल हवस मज़ाक़ ए सलीम
जिसे नज़र तो मिली जज़्बा ए दरूँ न मिला,

मिली थीं तर्क ए मोहब्बत के बाद भी आँखें
मगर वो कैफ़ वो एजाज़ वो फ़ुसूँ न मिला,

फ़लक शिगाफ़ था इस दर्जा इज़्तिराब ए अमल
कि बंदगी में फ़रिश्तों को भी सुकूँ न मिला,

न जाने किस के सहारे रुका हुआ है फ़लक
हमें तो फ़र्श ए ज़मीं पर कोई सुतूँ न मिला..!!

~शकील बदायूनी

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