दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद

दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद
हम मिट नहीं सकेंगे मिटाने के बावजूद,

ये राज़ काश बाद ए मुख़ालिफ़ तू जान ले
क्यूँ जल रहे हैं तेरे बुझाने के बावजूद,

अब भी बहुत ग़ुरूर है एक हाथ पर उसे
एक हाथ हादसे में गँवाने के बावजूद,

बुज़दिल था मुस्तहिक़ था मैं मुझको सज़ा मिली
बख़्शा न उस ने हाथ उठाने के बावजूद,

ख़्वाबों के शौक़ में कहीं आँखें गँवा न दें
हम सो रहे हैं नींद न आने के बावजूद..!!

~नवाज़ देवबंदी

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