दस्तरस में न हो हालात तो फिर क्या कीजिए
वक़्त दिखलाए करिश्मात तो फिर क्या कीजिए,
साहब ए वक़्त है जो उनकी तबीयत चाहे
ज़ुल्म को कह दे मुक़ाफात तो फिर क्या कीजिए,
तीरगी गम ए हस्ती का तसलसुल टूटे
चलिए ये कट भी गई रात तो फिर क्या कीजिए,
ज़िन्दा रहने के लिए शर्त ए तहम्मुल ठहरी
उस पे क़ायल न हुई ज़ात तो फिर क्या कीजिए,
ज़ीस्त के लम्हों को रखता है सजा कर शायर
माँग ले कोई हिसाबात तो फिर क्या कीजिए..!!