चश्म देखूँ न मैं उस की न ही अबरू देखूँ
फिर वो क्या शय है जिसे दुनिया में हर सू देखूँ ?
इस भरे शहर में बस एक ही सौदागर है
अब मैं सामान खरीदूँ कि तराज़ू देखूँ ?
जंग ने छोड़ दिए ज़ख़्म मेरे हाथों पर
फ़त्ह का जश्न मनाऊँ कि ये बाज़ू देखूँ ?
मुझ को हालात ने इस सम्त धकेला है मगर
मेरी ये उम्र कहाँ है कि मैं घूँघरू देखूँ ?
इन उजालों से बंधी हैं मेरी आँखें ज़ीशाँ
इन उजालों से निकल जाऊँ तो घूँघरू देखूँ..!!
~इब्राहीम अली ज़ीशान
शर्मिंदगी में उम्र बसर कर रहे हैं हम
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