तलाश ए जन्नत ओ दोज़ख में रायेगाँ इंसाँ
तलाश ए जन्नत ओ दोज़ख में रायेगाँ इंसाँ
ज़मीं पे रोज़ मनाता है कायनात का दुःख,
तमाम दिन की मुसीबत तो बाँट ली हम ने
कभी कहा नहीं अपनी अपनी रात का दुःख,
गए दिनों का कोई ख्वाब दफ़न है शायद
अब भी आँख से रिसता है बाकियात का दुःख,
न जाने मालिक ए कुन किस तरह निभाता है ?
ये दस्तरस की सहुलात ये मुम्किनात का दुःख..!!