गुरेज़ कर के मुसाफ़िर कोई गुज़र भी गया…

गुरेज़ कर के मुसाफ़िर कोई गुज़र भी गया
न जाने कैसे मेरी रूह में उतर भी गया,

ये ज़ख्म ए इश्क़ है, कोशिश करो कि ये हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी, अगर ये भर भी गया,

मैं रंग भरता था सौ सौ तरह मुहब्बत में
शबाब खत्म हुआ और ये हुनर भी गया,

ख़जिल बहुत हूँ कि आवारगी भी ढब से न की
मैं दरबदर तो फिरा, लेकिन अपने घर भी गया,

कहा था उसने कि मुस्काओ और मर जाओ
सो मैं उसी घड़ी मुस्काया और मर भी गया,

बस एक याद की वहशत गई न दिल से
जहाँ जहाँ भी मैं ठहरा, जिधर जिधर भी गया..!!

Leave a Reply

error: Content is protected !!