ग़ज़ल को फिर सजा के सूरत ए महबूब लाया हूँ…

ग़ज़ल को फिर सजा के सूरत ए महबूब लाया हूँ
सुनो अहल ए सुखन ! मैं फिर नया असलूब लाया हूँ,

कहो, दस्त ए मुहब्बत से हर एक दर पे दस्तक क्यों ?
कहा, सबके लिए मैं प्यार का मक्तूब लाया हूँ,

कहो, क्या दास्ताँ लाये हो दिल वालो की बस्ती से ?
कहा, एक वाकया में आप से मंसूब लाया हूँ,

कहो, ये ज़िस्म किसका ? जान किसकी ? रूह किसकी है ?
कहा, तेरे लिए सब कुछ मेरे महबूब लाया हूँ,

कहो, कैसे मिटा डालूँ अना, मैं इल्तज़ा कर के ?
कहा, मैं तो लब पे अर्ज़ ए ना मतलूब लाया हूँ,

कहो, सारा जहाँ कैसे तुम्हारे घर के बाहर है ?
कहा, सब जिसके दीवाने है वो महबूब लाया हूँ,

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