मिलने का भी आख़िर कोई इम्कान बनाते

मिलने का भी आख़िर कोई इम्कान बनाते
मुश्किल थी अगर कोई तो आसान बनाते,

रखते कहीं खिड़की कहीं गुलदान बनाते
दीवार जहाँ है वहाँ दालान बनाते,

थोड़ी है बहुत एक मसाफ़त को ये दुनिया
कुछ और सफ़र का सर ओ सामान बनाते,

करते कहीं एहसास के फूलों की नुमाइश
ख़्वाबों से निकलते कोई विज्दान बनाते,

तस्वीर बनाते जो हम इस शोख़अदा की
लाज़िम था कि मुस्कान ही मुस्कान बनाते,

उस जिस्म को कुछ और समेटा हुआ रखते
ज़ुल्फ़ों को ज़रा और परेशान बनाते,

कुछ दिन के लिए काम से फ़ुर्सत हमें मिलती
कुछ दिन के लिए ख़ुद को भी मेहमान बनाते,

दो जिस्म कभी एक बदन हो नहीं सकते
मिलती जो कोई रूह तो यक जान बनाते..!!

~फ़ाज़िल जमीली

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