नींद नहीं आती कितनी अकेली हो गई

नींद नहीं आती कितनी अकेली हो गई
रफ़ू करते करते ज़िन्दगी पहेली हो गई,

ये हसरतें भी ख़्वाब भी लगने लगे ऐसे
चाय जैसे कप में देर की उड़ेली हो गई,

सोता हूँ जागता हूँ रहती है साथ साथ
ये ग़म की दुनिया पक्की सहेली हो गई,

अब ढूँढने क्या जाना कन्नौज में ख़ुशबू
मेरी तन्हाई की बस्ती नई नवेली हो गईं,

इधर तूफ़ान आये हैं ना कोई ज़लज़ला
मगर ज़र्ज़र कैसे गाँव की हवेली हो गई ?

माँ बाप समझते हैं जहाँ पा लिया अगर
उनकी बच्चियों की पीली हथेली हो गई,

जाता हूँ कहीं भी पर पीछा नहीं छोड़ती
उसकी हरक़त तो ख़ुशबू चमेली हो गई,

अगली सफ़ों में आने का मज़ा भी क्या
अगर कुर्सियों की धक्का धकेली है गई,

खोया हुआ झुमका मिलता नहीं ज़फ़र
मेरे क़दमों की धूल में पूरी बरेली हो गई..!!

~ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

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