बरहम कभी क़ासिद से वो महबूब न होता

बरहम कभी क़ासिद से वो महबूब न होता
गर नाम हमारा सर ए मक्तूब न होता,

ख़ूबान ए जहाँ की है तेरे हुस्न से ख़ूबी
तू ख़ूब न होता तो कोई ख़ूब न होता,

इस्लाम से बरगश्ता न होते ब ख़ुदा हम
गर इश्क़ ए बुताँ तब्अ के मर्ग़ूब न होता,

क्यूँ फेर वो देता मुझे ले कर मेंरे बर से
इतना जो दिल ए ज़ार ये मायूब न होता,

इस बुत को ख़ुदा लाया है हम पास वगर्ना
जीने का हमारे कोई उस्लूब न होता,

दिल आज के दिन पास जो होता मेंरे तो आह
आने से मैं उस शोख़ के महजूब न होता,

हैं लाज़िम ओ मलज़ूम बहम हुस्न ओ मोहब्बत
हम होते न तालिब जो वो मतलूब न होता,

सर अपना रह ए इश्क़ में देता जो न जुरअत
तू मजमा ए उश्शाक़ का सरकूब न होता..!!

~जुरअत क़लंदर बख़्श

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