शाम अपनी बेमज़ा जाती है रोज़
और सितम ये है कि आ जाती है रोज़,
कोई दिन आसाँ नहीं जाता मेरा
कोई मुश्किल आज़मा जाती है रोज़,
मुझ से पूछे कोई क्या है ज़िंदगी
मेरे सर से ये बला जाती है रोज़,
जाने किस की सुर्ख़रूई के लिए
ख़ूँ में ये धरती नहा जाती है रोज़,
गीत गाते हैं परिंदे सुब्ह ओ शाम
या समाअ’त चहचहा जाती है रोज़,
देखने वालों को ‘अजमल’ ज़िंदगी
रंग कितने ही दिखा जाती है रोज़..!!
~अजमल सिराज