किसी के इश्क़ में रस्तों की धूल हो गए हैं
ख़ुदा का शुक्र कि पैसे वसूल हो गए हैं,
जनाब-ए-हिज्र ने क़त-ओ-बुरीद की ऐसी
कि खींच-तान के ख़ुद को क़ुबूल हो गए हैं,
कभी वो आता था मिलने हमें जहाँ छुप कर
हम उस मज़ार की क़ब्रों के फूल हो गए हैं,
अगर वो चाँद मिले तो हमारी जानिब से
उसे बताना सितारे वसूल हो गए हैं,
चहक उठा है अचानक चमन उदासी का
चराग़ चाँद हुआ ज़ख़्म फूल हो गए हैं,
वो लोग तेरे लिए जिन को रद्द किया हम ने
सुना है आज वो तुझ को क़ुबूल हो गए हैं,
कभी जो ताब-ओ-तमन्ना की यूनिवर्सिटी थे
अब एक गाँव का उजड़ा सकूल हो गए हैं,
कहाँ से आती है ‘अरमान’ मेरे शेर की लहर
सुना तो ये था कि सारे नुज़ूल हो गए हैं..!!