होंठों पे उसके जुम्बिश ए इंकार भी नहीं
आँखों में कोई शोख़ी ए इक़रार भी नहीं,
बस्ती में कोई मूनिस ओ ग़म ख़्वार भी नहीं
ग़ालिब का हाए कोई तरफ़दार भी नहीं,
कश्ती बुरी तरह है भँवर में फँसी हुई
लेकिन हमारे हाथ में पतवार भी नहीं,
उन को सज़ाएँ दी हैं ज़माने ने बारहा
मुल्ज़िम भी जो नहीं हैं गुनाहगार भी नहीं,
तोहफ़ा अजब दिया है चमन को बहार ने
फूलों का ज़िक्र क्या है कोई ख़ार भी नहीं,
शायद तअ’ल्लुक़ात में अब इंजिमाद है
पहली सी बात बात पे तकरार भी नहीं,
शो पीस तो बना दिया हालात ने असद
कोई मगर हमारा ख़रीदार भी नहीं..!!
~असद रज़ा